भारतीय कृषि: इतिहास, शाखाएं, कार्यक्षेत्र और महत्व | Indian Agriculture: History, branches, scope and importance.

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 Indian Agriculture: History, branches, scope and importance




हमारे देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि व कृषि उद्योगों पर निर्भर हैं। प्राचीन काल से ही भारत कृषि प्रधान देश रहा हैं। भारत के प्राचीन ग्रन्थों यथा वृक्षायुर्वेद, कृषि पाराशर, कृषि सूक्त, अथर्ववेद, ऋग्वेद आदि का अध्ययन करने से स्पष्ट होता हैं, कि प्राचीन समय से ही कृषि, भारत में अपना विशिष्ट स्थान रखती थी। खाद्य कृषि संगठन (FAO) के कृषि विशेषज्ञ रह चुके डॉ. के. एल. मेहरा ने बताया कि सरस्वती नदी के उद्भव का पता लगने के बाद शोध द्वारा यह प्रमाणित हो गया हैं कि भारत प्राचीन काल से ही एक साथ दो फसलें लेने वाला दुनिया का पहला देश हैं, इस तरह भारतीय कृषि सभ्यता विश्व की प्राचीनतम् सभ्यता मानी जाती हैं।
            मनुष्यों की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति कृषि द्वारा ही होती हैं। आहार, वस्त्र, आवास सहित सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कृषि अथवा कृषि आधारित उद्योगों से होती हैं। प्राचीन समय से ही राज्य व्यवस्था चलाने में कृषि को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था ।



            महाभारत के सभापर्व में ऋषि नारद, युधिष्ठिर से कहते है- " हे राजन कृषि को सुधारने हेतु स्थान-स्थान पर कुएँ, बावड़ी, तालाब इत्यादि खुदवायें जायें, ताकि आपके राज्य में कृषि वर्षा पर ज्यादा निर्भर न रहें।"
            प्राचीन ग्रन्थों में अक्षत (चावल), कनक (गेहूँ), जौ, तिल, श्रीफल (नारियल), हल्दी, चन्दन, ईख, राई, मेथी, सूत (कपास) इत्यादि का उल्लेख किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि भारत में कृषि उपज का अस्तित्व हजारों वर्ष पूर्व भी था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता काल के अवशेषों में कृषि उपज के अवशेष भी प्राप्त हुये हैं।

           


 निम्न उदाहरणों से प्राचीन भारत में उन्नत कृषि ज्ञान की पुष्टि की जा सकती हैं 

(1) ऋग्वेद की ऋचाओं में पर्यावरण, वानिकी, कृषि उपकरण आदि का महत्व दर्शाया गया है। 
(2) मोहन जोदड़ो व हड़प्पा सभ्यता से देशी हल, जुते हुए खेत, अनाज भण्डारण, पहिये वाली गाड़ी के अवशेष मिले हैं। 
(3) अथर्ववेद में पादप सुरक्षा संबंधी जानकारी दी गई हैं। 
(4) वाराहमिहिर के वृहत संहिता में मृदा वर्गीकरण, सिंचाई प्रणाली, कृषि उपकरण एवं मौसम पूर्वानुमान की जानकारी दी गई हैं।


अतः प्राचीन भारतीय कृषि में निहित परम्परागत ज्ञान को आधुनिक कृषि विज्ञान की उन्नत प्रौद्योगिकी के साथ समाहित करके कृषि का समुचित विकास किया जा सकता हैं।

कृषि की परिभाषा:


1. शब्द का उत्पत्ति: "कृषि" शब्द संस्कृत की "कृष" धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है- खींचना, आकर्षित करना, जोतना, प्राप्त करना। "कृषि" (कृष+इन्, कित्) का अर्थ होता है- जुताई, खेती, किसानी, और इसके माध्यम से फसल प्राप्त करना।

2. उत्पत्ति: "कृषि" (AGRICULTURE) शब्द लैटिन भाषा के शब्द "Ager" या "Agri" तथा "Cultura" से लिया गया है, जिसका अर्थ है क्रमशः मृदा और कृषि कर्म करना

3. परिभाषा: कृषि विज्ञान एक विस्तृत शब्द है, जिसमें फसल उत्पादन, पशुपालन, मछली पालन, वानिकी, और अन्य सभी कृषि से संबंधित तत्व समाहित होते हैं।

सारांश में, कृषि का मतलब होता है मनुष्य की वह क्रिया जिसका मुख्य उद्देश्य धरातलीय संसाधनों से खाना, रेशा, ईंधन आदि का उत्पादन है। कृषि विज्ञान उन सभी तत्वों को शामिल करता है जो फसल उत्पादन, पशुपालन आदि के लिए आवश्यक होते हैं।

कृषि के प्राचीन रूप में अनुभव और दक्षता की जरूरत होती है, जबकि आधुनिक कृषि के लिए अनुसंधान, सिद्धांत, तकनीक, क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित ज्ञान, प्रायोगिक अभ्यास, और कृषि का यंत्रीकरण भी आवश्यक होता है।

**आधुनिक भारत में कृषि विकास का इतिहास**


*सन् 1899-1900: भारतीय कृषि बोर्ड की स्थापना और कृषि के चहुँमुखी विकास की शुरुआत*


भारत के आधुनिक कृषि विकास का इतिहास एक लम्बा और महत्वपूर्ण है। डॉ. एम. एस. रंधावा की पुस्तक "भारत में कृषि का इतिहास" में भारतीय कृषि का वर्णन प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

*सन् 1904: फिप्स प्रयोगशाला का स्थापना*


सन् 1904 में, भारतीय कृषि बोर्ड ने स्थायी समाधान और कृषि के चहुँमुखी विकास के लिए गंडक नदी के किनारे, बिहार के दरभंगा जिले में गंडक नदी के किनारे कृषि शोध कार्यों के लिए फिप्स प्रयोगशाला की स्थापना की। इस प्रयोगशाला को पूसा (Phipps of USA) के नाम से प्रसिद्ध किया गया।

*सन् 1911: इम्पीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च*


सन् 1911 में, पूसा स्थित कृषि संस्थान का नाम "इम्पीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च" में बदल दिया गया। इस संस्थान में फसलों और पशुओं के प्रजनन, मृदा विज्ञान, कीट व कवक विज्ञान और वनस्पति विज्ञान आदि विषयों में अनुसंधान हेतु व्यापक रूपरेखा तैयार की गई।

*सन् 1936: भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना*


7 नवम्बर 1936 को, बिहार में विनाशकारी बाढ़ के कारण क्षतिग्रस्त हुए पूसा इंस्टीट्यूट को दिल्ली स्थानान्तरित किया गया और इसे आज भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के नाम से जाना जाता है।

*सन् 1960: खाद्यान्नों की उपलब्धता की गहन चुनौती*


1960 में, खाद्यान्नों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना देश के लिए एक गहन चुनौती थी। तब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के महानिदेशक डॉ. बी. पी. पाल और पूसा संस्थान के निदेशक डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन ने योजनाबद्ध तरीके से कृषि विकास की रूपरेखा तैयार की।

*सन् 1963: हरित क्रांति का सूत्रपात*


सन् 1963 में, बौने गेहूँ के जनक नार्मन ई. बोरलॉग ने भारत का भ्रमण किया। उन्होंने अधिक उपज देने वाली गेहूँ की किस्मों का निर्माण किया, जिससे देश को खाद्य सुरक्षा प्राप्त हुई और हमारे देश में हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ।

*सन् 1929: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की स्थापना*


कालांतर में, देश में 1929 में नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) की स्थापना हुई और उसके तहत स्थापित विभिन्न कृषि अनुसंधान केन्द्र, कृषि विश्वविद्यालय व अन्य कृषि संस्थानों के माध्यम से सतत् कृषि अनुसंधान एवं प्रसार के फलस्वरूप डॉ. स्वामीनाथन एवं डॉ. बोरलॉग के सफल प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत में तेजी से कृषि उपज में आशातीत वृद्धि हुई, जिससे हमारा देश विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बन गया।


कृषि विज्ञान की विभिन्न शाखाएँ -


1. शस्य विज्ञान (Agronomy )  – 

ग्रीक भाषा के - शब्द 'एग्रोस' (Agros - Field) अर्थात् खेत तथा नोमोस (Nomos Management) अर्थात् प्रबन्धन से बना है। यह कृषि की एक विशेष शाखा हैं जिसका सम्बन्ध फसल उत्पादन एवं मृदा प्रबन्धन से हैं।

2. उद्यान विज्ञान (Horticulture ) - 

बागवानी (फल, सब्जी, पुष्प) से सम्बन्धित फसलों एवं कार्यों का अध्ययन किया जाता हैं। 

3. पशुपालन एवं पशुधन उत्पादन (Animal Husbandry) - 

पशुओं को पालने का वैज्ञानिक अध्ययन इस शाखा के अन्तर्गत किया जाता हैं।

4. मधुमक्खी पालन ( Apiculture ) -

 इस शाखा के अन्तर्गत मधुमक्खी पालन एवं शहद उत्पादन से सम्बन्धित अध्ययन किया जाता है।

5. मछली पालन (Fishery ) -

 कृषि विज्ञान की इस शाखा के अन्तर्गत मछली पालन एवं उत्पादन से सम्बन्धित वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं।

6. रेशम कीट पालन (Sericulture)- 

इस शाखा के अन्तर्गत रेशम कीट पालन एवं रेशम उत्पादन का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं। 

7. लाख उत्पादन (Lac Culture)-

 इस शाखा के अन्तर्गत लाख उत्पादन से सम्बन्धित अध्ययन किया जाता हैं। 

8. वन विज्ञान (Forestry) -

 इसके अन्तर्गत वनों में उगने वाले पौधों के उगाने एवं उनके उपयोग का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

9. मशरूम उत्पादन (Mushroom Production ) -

 इस शाखा के अन्तर्गत मशरूम उत्पादन का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं। 

10. कुक्कुटपालन (Poultry)-

 इस शाखा के अन्तर्गत कुक्कुट (मुर्गी पालन का विस्तृत अध्ययन किया जाता हैं। 

11. कीट विज्ञान (Entomology ) -

 कृषि विज्ञान की इस शाखा में कीट से फसलों पर पड़ने वाले प्रभाव से सम्बन्धित न वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं। 

12. पादप रोग विज्ञान (Plant Pathology)-

पौधे पर लगने वाले विभिन्न रोग रोग कारक एवं उनके नियन्त्रण का विस्तृत अध्ययन इस शाखा में किया जाता हैं। 

13. कृषि प्रसार (Agricultural Extension)- 

कृषि अनुसंधान से प्राप्त नवीन तकनीकी जानकारी को किसान के खेत तक पहुँचाने का अध्ययन अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से इस शाखा में किया जाता है।

14. कृषि अर्थशास्त्र (Agricultural Economics) - 

कृषि लागत एवं आय की गणना का विस्तृत अध्ययन इस शाखा में किया जाता है।

भारतीय कृषि का महत्व 

 भारतीय कृषि का महत्व भारत जलवायु की विविधता वाला देश है, यहाँ अलग-2 भौगोलिक खण्डों में वर्षा, तापमान, आद्रता, वायुदाब, वायुवेग का स्तर अलग-2 है।

चूंकि कृषि कार्य के लिये उपयुक्त जलवायु, भूमि, मीठा जल, उन्नत बीज, सस्ते मजदूर की उपलब्धता आवश्यक है। इसलिये भारत विश्व के अनेक देशों की अपेक्षा खेती व कृषि के अन्य कार्य की दृष्टि से उपयुक्त स्थान माना जाता है। अतः भारतीय कृषि का निम्नलिखित महत्व है -

1. मानसून पर आधारित खेती - भारत में अधिकांश क्षेत्र में भूमिगत जल स्तर या तो कम है, या जल खारा है। जो सभी फसलों के लिये उपयुक्त नहीं है।

चूंकि भारत में वर्ष में 6 माह दक्षिणी पश्चिमी मानसून की हवाएँ चलती है, जिससे भारत के अधिकांश क्षेत्रों में जून माह से अक्टूबर माह तक वर्षा होती है। कुछ क्षेत्रों में दिसम्बर-जनवरी माह में भी वर्षा होती है। अतः भारत के अधिकांश किसान वर्षा आधारित कृषि (Rainfed cultivation) कार्य करते हैं। अधिकांश क्षेत्रों में भूमिगत व सतही सिंचाई स्रोत भी मानसून के वर्षा जल से परिपूर्ण होते है। अतः वर्षा की अनियमितता या कमी से खेती पर विपरीत असर पड़ता है। फसल की बुवाई से लेकर उपज प्राप्ति तक सभी कार्य प्रभावित होते हैं। जबकि अच्छी वर्षा होने पर पैदावर अच्छी हो जाती है।

2. अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर भारत में 70% लोग खेती करते है। इससे जहाँ एक ओर रोजगार के पर्याप्त अवसर मिलते है। लेकिन अकाल पड़ने व फसल खराब होने पर खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो जाता है।

3. परम्परागत तकनीकी - भारत में किसान परम्परागत खेती करते है, किसान को खेती का कार्य विरासत में मिलता है, जिससे अनुभव व कौशल से वह परिपूर्ण होता है, लेकिन नवीन तकनीक का उसे ज्यादा ज्ञान नहीं होता है। जिससे उत्पादन बढ़ाने का प्रयास वह नहीं कर पाता है। अब वह कुछ मात्रा में उन्नत तकनीक, बीज खाद, कृषि यंत्रो का प्रयोग करके खेती में सुधार कर रहा है।


4. खाद्यान्न फसलों की अधिकता - भारत के किसान अपनी आवश्यकता को देखकर खेती में फसलों का चयन करते है । उसे खाद्यान्न की प्राथमिक आवश्यकता रहती है। इसलिये अधिकांश किसान अनाज वाली फसलें ज्यादा मात्रा में बोता है। दलहन, तिलहन व अन्य रोकड़ फसलें कम बोता है । जिससे उसे रोकड़ आमदनी कम प्राप्त होती है।

5. रोजगार का प्रमुख साधन उद्योग रोजगार के प्रमुख साधन - भारत में कृषि आधारित । अधिकांश जनसंख्या खेती पर निर्भर होने से अकाल बाढ़ या फसल खराब होने पर लोगों का बड़े स्तर पर रोजगार प्रभावित होता है। जिससे किसान व मजदूर कर्जदार हो जाता है, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति जागरूकता कम है। अतः अन्य रोजगार के अवसर वह खोज नहीं पाता है।

6. राष्ट्रीय आय का प्रमुख स्रोत भारत के 70% लोगों से प्राप्त कृषि उपज के कृषि व्यापार से प्राप्त विभिन्न प्रकार के कर के रूप से सरकार को आय प्राप्त होती है। यदि कभी फसलें खराब होती है, तो राष्ट्रीय आय भी प्रभावित हो जाती है।

7. डेयरी उत्पादन के लिये कच्चामाल भारत में अधिकांश किसान खेती के साथ-साथ पशुपालन करते है, जिससे प्राप्त दूध ही डेयरी उद्योग का आधार है। किसान अपने खेत पर पशुओं के लिये चारा तैयार करता है तथा फसल अवशेष को भी पशु चारे के रूप में प्रयोग करता है।

8. खाद्यान्न उपलब्धता भारत की जनसंख्या वर्तमान में 125 करोड़ है। इतनी बड़ी जनसंख्या को भोजन प्रदान करने के लिये बहुत बड़ी मात्रा में खाद्यान्न की आवश्यकता होती है। हमारे यहाँ खेती की उपज द्वारा अधिकांश किसान गेहूँ, जौ, चावल, मक्का, बाजरा, ज्वार, इत्यादि अनाज की पूर्ति देश को कर देता है। हरित क्रांति के द्वारा हमारे देश में खाद्यान्न की उपलब्धता कई गुना बढ़ गई, जिससे खाद्यान्न की उपलब्धता के मामले में देश आत्मनिर्भर हो गया है तथा भारत खाद्यान्न का निर्यात भी करता है।

9. वस्त्र उद्योग के लिए कच्चा माल- भारत में कपास, जूट का उत्पादन बहुतायत से होता है। अतः वस्त्र उद्योग के लिये भी पर्याप्त कच्चा माल देश के किसान उत्पादित कर देते है।

10. पशु चारा उपलब्धता - किसान द्वारा उत्पादित फसलों के अवशेष को सूखे चारे के रूप में किसान संग्रहित करता है। साथ ही खेत में हरे चारे को उगाकर पशुओं को उपलब्ध कराता है। जिससे देश में पशुपालन व डेयरी उद्योग का विकास तेजी से हो रहा है।

11. कृषि आधारित उद्योगों के लिये कच्चा माल- भारत में दलहन, तिलहन, वस्त्र, डेयरी, जूट उद्योग, चीनी उद्योग, फल व सब्जी प्रसंस्करण उद्योग के लिये कच्चा माल खेती से ही प्राप्त होता है। मूंग, उड़द, अरहर, चना, मसूर इत्यादि का उत्पादन दाल उद्योग को कच्चा माल प्रदान करता है। इसी तरह तिल, मूँगफली, सरसों के उत्पादन से खाद्य तेल के उद्योग चलते है तथा कपास व जूट से वस्त्र उद्योग चलता है।

12. बेरोजगारी की समस्या का समाधान भारत में अच्छे मानसून से पर्याप्त वर्षा होने पर कृषि उत्पादन अच्छा होता है जिससे अधिकांश बेरोजगारों को रोजगार के अवसर प्राप्त हो जाते हैं।

13. विदेश व्यापार व निर्यात - हमारे देश के फल,सब्जी, पुष्प, अनाज, दलहन, तिलहन के प्रसंस्करण के पश्चात उनका निर्यात किया जाता है। जिससे भारत को काफी विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

14. देश की आर्थिक विकास में योगदान- जब किसी देश का कृषि उत्पादन बढ़ता है तो घरेलू बाजार में तथा विदेशी व्यापार में उसका लेनदेन होता है जिससे सरकार को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष कर काफी मात्रा में प्राप्त होता है। भारत में कृषि व कृषि आधारित उद्योगों से आर्थिक विकास में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है।

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